अध्याय 7 का परिचय: ज्ञान-विज्ञान योग भगवद गीता का सातवाँ अध्याय — "ज्ञान-विज्ञान योग" — आत्मिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को न केवल तत्वज्ञान प्रदान करते हैं, बल्कि उस ज्ञान को अनुभव में बदलने की विधि भी बताते हैं। यह अध्याय व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रेरित करता है और भक्ति, समर्पण तथा ईश्वर की व्यापकता को समझने का मार्ग दिखाता है। ईश्वर का स्वरूप और उसकी अभिव्यक्तियाँ इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि वे ही इस सृष्टि के मूल कारण हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार — ये सभी उनकी अपरा प्रकृति के रूप हैं। वहीं जीवात्मा उनकी परा प्रकृति है। वे कहते हैं कि समस्त भूत उन्हीं से उत्पन्न होते हैं और उन्हीं में विलीन होते हैं। ईश्वर की अभिव्यक्तियाँ जल में रस, सूर्य-चंद्रमा में प्रकाश, वेदों में ओंकार, पुरुषों में पुरुषत्व के रूप में प्रकट होती हैं। भक्ति और समर्पण की शक्ति भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि चार प्रकार के भक्त उन्हें भजते हैं — आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। इनमें ज्...
आत्मसंयमयोग: भगवद गीता अध्याय 6 की गहराइयों में एक आध्यात्मिक यात्रा जब जीवन की गति तेज हो जाती है और मन चंचलता की ओर भागता है, तब अध्याय 6 का आत्मसंयमयोग हमें एक मौन निमंत्रण देता है—अपने भीतर लौटने का, संतुलन और शांति को पुनः खोजने का। भगवद गीता का यह अध्याय न केवल ध्यान की विधियों को उजागर करता है, बल्कि आत्मसंयम को आत्मज्ञान की सीढ़ी बनाकर प्रस्तुत करता है। यह वह मार्ग है जहाँ योग केवल अभ्यास नहीं, बल्कि जीवन की एक शैली बन जाता है—जहाँ साधक स्वयं को जीतकर परमात्मा से जुड़ता है। अध्याय 6 का सारांश: आत्मसंयमयोग क्या है? आत्मसंयमयोग का अर्थ है—स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए ध्यान और योग के माध्यम से आत्मा की शुद्धि करना। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि सच्चा योगी वह है जो न तो अत्यधिक भोग में लिप्त होता है, न ही कठोर तप में। वह संतुलन में जीता है, अपने मन को साधता है, और ध्यान के माध्यम से परमात्मा से जुड़ता है। योगी वह है जो कर्मफल की इच्छा त्याग कर, आत्मा में स्थित रहता है। — भगवद गीता, अध्याय 6 आत्मसंयम से आत्मज्ञान की ओर आत्म-अनुश...