श्री हरिः शरणम्
गीता पढ़ने के लाभ -अर्जुन की गीता
|
Image Credit Goes To Wikipedia manavatha |
गीता सारे उपनिषदों का सार है-सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदन: |
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ||
‘सम्पूर्ण उपनिषद गौ के समान हैं, गोपालनंदन श्रीकृष्ण दूध दुहनेवाले हैं | कुन्तीपुत्र अर्जुन बछड़ा है, महत्त्वपूर्ण गीता का उपदेशामृत ही दूध है और उत्तम बुद्धिवाले पुरुष ही उसके पीनेवाले हैं |
गीता गंगा से भी बढ़कर है | शास्त्रों में गंगा स्नान का फल मुक्ति बतलाया गया है; परन्तु गंगा में स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त हो सकता है, वह दूसरों को संसार-सागर से तारने में असमर्थ है; किन्तु गीतारूपी गंगा में गोते लगानेवाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, वह दूसरों को भी तार सकता है | गंगा तो भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है, किन्तु गीता साक्षात् भगवान के मुखारविंद से निकली है | फिर गंगा तो जो उसमें जाकर स्नान करता है, उसीकी मुक्ति करती है; किन्तु गीता तो घर-घर में जाकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाती है |
गीता गायत्री से बढ़कर है | गायत्री-जप करनेवाला भी स्वयं ही मुक्त होता है; पर, गीता का अभ्यास करनेवाला तो तरन-तारन बन जाता है | मुक्ति का तो वह सदाव्रत खोल देता है |
गीता को स्वयं भगवान से भी बढ़कर कहा जाय तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी; क्योंकि स्वयं भगवान ने कहा है-गीताश्रेयंऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् |
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रीँल्लोकान् पालयाम्यहम् || (वाराहपुराण)
‘मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ, गीता मेरा उत्तम घर है, गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मै तीनों लोकोंका पालन करता हूँ |’
गीता ज्ञानका सूर्य है | भक्तिरूपी मणिका भण्डार है | निष्काम-कर्म का अगाध सागर है | गीता में ज्ञान, भक्ति और निष्कामभाव का तत्त्वरहस्य जैसा बतलाया गया है, वैसा किसी ग्रन्थ में भी एकत्र नहीं मिलता |
आत्मा के उद्धार के लिए तो गीता सर्वोपरि ग्रन्थ है ही, इसके सिवा, यह मनुष्य को सभी प्रकार की उन्नति का मार्ग दिखानेवाला ग्रन्थ भी है।
जैसे-
शरीर की उन्नति के लिए गीता में सात्विक भोजन बतलाया गया है-आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: |
रस्या: स्निग्धा: स्थिर हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: || (१७/८)
‘आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं|’
भाव यह है कि इस प्रकार के सात्त्विक आहार के सेवन से आयु, अन्त:करण, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढ़ती है; किन्तु इसके विपरीत शरीर को हानि पहुँचानेवाले राजस-तामस भोजन का त्याग करने के लिए निषेध रूप से उनका वर्णन किया गया है (गीता १७/९-१० में देखिये) |
उत्तम आचरणों की शिक्षा के लिए शारीरिक तप बतलाया गया है-देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (गीता १७/१४)
‘देवता, ब्राह्मण, माता-पिता आदि गुरुजनों और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा –यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है |’
क्रमशः....
परम श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका ( सेठ जी)
‘गीता पढ़ने के लाभ’ पुस्तक से, कोड नं०३०४ गीताप्रेस गोरखपुर
Comments
Post a Comment
Please do not enter any spam link in a comment box.