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भगवद गीता: आध्यात्मिक ज्ञानोदय के लिए एक मार्गदर्शिका

भगवद गीता एक श्रद्धेय आध्यात्मिक पाठ है जिसमें आत्मज्ञान और आंतरिक शांति चाहने वालों के लिए गहन ज्ञान और मार्गदर्शन है। यह हिंदू धर्म का एक पवित्र ग्रंथ है और दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक माना जाता है। भगवद गीता में, भगवान कृष्ण योद्धा अर्जुन को जीवन, कर्तव्य और आत्म-प्राप्ति के मार्ग के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करते हुए आध्यात्मिक शिक्षा देते हैं। यह प्राचीन पाठ मानव स्थिति और आध्यात्मिक विकास की खोज में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करने और प्रेरित करने के लिए जारी है। भगवत गीता का परिचय भगवद गीता एक कालातीत आध्यात्मिक पाठ है जो आत्मज्ञान और आंतरिक शांति चाहने वालों के लिए गहन ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसे दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक माना जाता है और हिंदू धर्म में इसका पूजनीय स्थान है। इस पवित्र ग्रंथ में, भगवान कृष्ण योद्धा अर्जुन को जीवन, कर्तव्य और आत्म-प्राप्ति के मार्ग के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करते हुए आध्यात्मिक शिक्षा देते हैं। भगवद गीता मानव स्थिति और आध्यात्मिक विकास की खोज में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करने और प्रेर

भक्ति की शक्ति का दर्शन - श्रीमद भागवत

भक्ति की शक्ति का दर्शन
भक्ति में कितनी शक्ति होती है इस बात का प्रमाण हमारी भागवत में स्पष्ट रूप से दिया गया है। संसार में कई ऐसे भक्त हैं हुए हैं जिन्होंने भक्ति की पराकाष्ठा को सिद्ध किया और भगवान को प्राप्त करना कितना सहज है इस बात को संसार के समक्ष प्रस्तुत किया।  जब बच्चा जन्म लेता है, तो कुछ दिनों में ही अपनी माँ को प्रेम करने लगता है, फिर अपने पिता को ,धीरे-धीरे वह अपने अन्य भाई,बहन को प्रेम करने लगता है। क्या उसे कोई यह प्रेम करना सिखाता है? नहीं भगवान प्रत्येक जीव को प्रेम करने की शक्ति अर्थात भक्ति देकर ही इस जगत में भेजतें हैं लेकिन हम इस शक्ति को शरीर के रिश्तेदारों व संसारिक वस्तुओं में निवेशित करते रहते हैं जबकि इसे हमें भगवान की सेवा या भक्ति में लगाना चाहिए जिससे हम भगवत-प्रेम का विकास अपने हृदय में कर सकते हैं।
वस्तुतः भगवान के साथ हमारा सम्बन्ध, सेवा का सम्बन्ध है। भगवान परम भोक्ता हैं और हम सारे जीव उनके भोग(सेवा) के लिए बने हैं और यदि हम भगवान के साथ उस नित्य भोग में भाग लेते हैं तो हम वास्तव में सुखी बनते है तथा आनन्द का उपभोग करते हैं, क्योंकि भगवान आनन्द के अगाध सागर हैं। हम किसी अन्य प्रकार से या स्वंतत्र रूप से कभी भी सुखी नही बन सकते है।

भक्तिकर्म दो प्रकार की होती  है:
राग भक्ति (स्वतः स्फूर्त) तथा विधि भक्ति (साधन भक्ति) 
रागानुगा भक्ति से मनुष्य को मूल भगवान अर्थात कृष्ण की प्राप्ति होती है और विधि-विधानों से भक्ति करने पर मनुष्य को भगवान का विस्तार रूप प्राप्त होता है | माता यशोदा के पुत्र भगवान कृष्ण रागानुगा  प्रेमा-भक्ति में लगे भक्तों के लिए उपलब्ध हैं। वैधि भक्ति करने से मनुष्य नारायण का पार्षद बनता हैं (चै.च.मध्य लीला २४.८४ -८७) 
महाराज प्रहलाद (भक्त प्रह्लाद )ने अपने पिता दैत्य-राज हिरन्यकशिपू के पूछने पर सर्वश्रेष्ठ  शिक्षा के रूप में नवधा भक्ति (९ प्रकार की भक्ति) का वर्णन किया (श्रीमद् भागवतम – ७.५.२३) :
(१)श्रवणं: भगवान के पवित्र नाम को सुनना भक्ति का शुभारम्भ है।  श्रीमद् भागवतम के पाठ को सुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्रवण विधि है। श्रवण से प्रारम्भ करके भक्ति द्वारा ही मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तक पहुँच सकता है। (चै.च.आदि लीला ७.१४१)  परीक्षित महाराज ने केवल श्रवण से मोक्ष प्राप्त किया था। 
(२)कीर्तनं: भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना  चैतन्य महाप्रभु ने संस्तुति की है: 
"कलह तथा कपट के इस युग में उद्धार का एक मात्र साधन भगवान् के नाम का कीर्तन है  कोई अन्य उपाय नहीं है, कोई अन्य उपाय नहीं है, कोई अन्य उपाय नहीं है।निर्पराध होकर हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने मात्र से सारे पाप-कर्म दूर होजाते हैं और भगवतप्रेम की कारणस्वरूपा शुद्ध भक्ति प्रकट होती है। (चै.च.आदि लीला ८.२६)
भगवान का पवित्र नाम भगवान के ही समान शक्तिमान है, अतः भगवान के नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से लोग दुर्लघ्य मृत्यु को शीघ्र ही पार कर लेते हैं (श्रीमद् भागवतम ४.१०.३०)  शुकदेव गोस्वामी जी ने केवल कीर्तन से मोक्ष प्राप्त किया। 
(३)स्मरणं:श्रवण तथा कीर्तन विधियों को नियमित रूप से संपन्न करने तथा अंत:करण को शुद्ध कर लेने के बाद स्मरण की संस्तुति की गयी है | मनुष्य को स्मरण की सिद्धि तभी मिलती है जब वह निरन्तर भगवान के चरण कमलों का चिंतन करता है | भक्तियोग का मूल सिद्धांत है भगवान के विषय में निरंतर चिंतन करना, चाहे कोई किसी तरह से भी चिंतन करे प्रह्लाद महाराज ने भगवान के निरन्तर स्मरण से मोक्ष प्राप्त किया। 
(४)पाद-सेवनम:* भगवान के चरण कमलों के चिंतन में गहन आसक्ति होने को पाद-सेवनम कहते हैं  वैष्णव, तुलसी, गंगा तथा यमुना की सेवा, पाद-सेवनम में शामिल है  लक्ष्मी जी ने भगवान के चरण कमलों की सेवा कर के सिद्धि प्राप्त की 
(५)अर्चनं:अर्चनं अर्थात भगवान के अर्चाविग्रह  की पूजा अर्चाविग्रह  की पूजा अनिवार्य है  प्रथु महाराज ने भगवान के अर्चाविग्रह  की पूजा कर के मोक्ष प्राप्त किया। 
(६)वन्दनं: भगवान की वंदना या स्तुति करना अक्रूरजी ने वंदना के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। 
(७)दास्यम:दास के रूप में भगवान की सेवा करना  हनुमान जी ने भगवान राम की सेवा कर के मोक्ष प्राप्त किया। 
(८)साख्यं: मित्र के रूप में भगवान की पूजा करना ' सखा 'शब्द के प्रगाढ़ प्रेम का सूचक है। अर्जुन ने भगवान से मैत्री स्थापित कर के मोक्ष प्राप्त किया। 
(९)आत्म निवेदनम: जब भक्त अपना सर्वस्व भगवान को अर्पित कर देता है और हर कार्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए करता है, यह अवस्था आत्मनिवेदनम है आत्मनिवेदनम का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बलि महाराज तथा अम्बरीष महाराज का है आत्मसमर्पण करने के फलस्वरूप भगवान बलि महाराज के द्वारपाल बन गये तथा उन्होंने सुदर्शन चक्र को अम्बरीष महाराज की सेवा में नियुक्त कर दिया
भक्ति सम्पन्न करने की नौ संस्तुत विधियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि इन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान शक्ति निहित है। (चै च.अन्त्य लीला ४.७०)
भक्ति का फल जीवन का चरम लक्ष्य भगवत्प्रेम है (चै च.मध्य लीला २३.३)
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श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है: “जब मनुष्य श्रवण, कीर्तन से आरम्भ होने वाली इन नौ विधियों से कृष्ण की प्रेममयी सेवा करता है, तब उसे सिद्धि का पाँचवां पद एवं जीवन के लक्ष्य की सीमा भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है” (चै च.मध्य लीला ९.२६१)
जब कोई व्यक्ति भक्ति में स्थिर हो जाता है, तो चाहे एक विधि को सम्पन्न करे या अनेक विधियों को, उसमे भगवत्प्रेम जागृत हो जाता है। (चै च.मध्य लीला २२.१३४)  वह भी श्री कृष्ण को प्रसन्न कर सकता है, जिस प्रकार उपरोक्त ने किया है।  
श्रीमद् भागवतम (४.८.५९ -६१) में नारद मुनि ध्रुव को समझाते हैं: “जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन,वचन तथा शरीर से भगवान की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं। यदि भक्त धर्म,अर्थ, काम या भौतिक संसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन सभी फलों को प्रदान करते हैं लेकिन यदि कोई मुक्ति के लिए अत्यंत उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति की पद्धति का द्रढ़ता से पालन कर समाधी की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और इन्द्रिय-तृप्ति के समस्त कार्यों से पूर्णतया विरक्त रहना चाहिए। ”  
भक्ति में विशेष प्रगति करने के लिए श्रवण तथा कीर्तन विधियों को संपन्न करते समय हमें भगवान का स्मरण (भगवान के सर्वआकर्षक रूप का ध्यान) अवश्य करना चाहिए। श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि आध्यात्मिक कार्यकलाप भक्ति के स्वाभाविक लक्षण है।  इसका तटस्थ लक्षण यह है कि इससे कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है। (चै.च.मध्य लीला २२.१०६)  यमराज कहते हैं कि “भगवान के नाम के कीर्तन से प्रारंभ होने वाली भक्ति ही इस भौतिक जगत में जीव के लिए परम धार्मिक सिद्धांत है” (श्रीमद् भागवतम ६.३.२२)अतः जो व्यक्ति भवबंधन से मुक्त होना चाहता है, उसे चाहिए कि भगवान के नाम, यश, रूप, तथा लीलाओ के कीर्तन तथा गुणगान की विधि को अपनाए। (श्रीमद् भागवतम ६.२.४६)  हे नरहरी, जिन जीवों ने यह मनुष्य जीवन प्राप्त किया है यदि वे आपका श्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा अन्य भक्ति कार्य करके आपकी पूजा करने से चूक जाते हैं तो वह व्यर्थ ही जीवित हैं और धोंकनी के समान ही स्वांस लेते रहते हैं (श्रील श्रीधर स्वामी) 
जिस व्यक्ति ने कभी भी भगवान के शुद्ध भक्त की चरण-धूलि अपने मस्तक पर धारण नही की, वह निश्चित रूप से शव है तथा जिस व्यक्ति ने भगवान के चरण-कमलो पर चढे तुलसी-दलों की सुगन्धि का अनुभव नही किया,वह स्वांस लेते हुए भी मृत देह के तुल्य है। 
(श्रीमद् भागवतम २.३.२३)  चाहे निष्काम हो, चाहे समस्त कामनाओं से युक्त हो, अथवा मोक्ष चाहता हो, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि भक्ति योग के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की आराधना करे  वैदिक ग्रंथों में कृष्ण आकर्षण के केन्द्रबिन्दु हैं और उनकी सेवा करना हमारा कर्म है  हमारे जीवन का चरम लक्ष्य कृष्ण-प्रेम प्राप्त करना है  अतएव कृष्ण, कृष्ण की सेवा तथा कृष्ण-प्रेम; ये जीवन के तीन महाधन हैं। (चै.च.मध्य लीला २०.१४३)  भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से व्यक्ति की इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं। 
(चै.च.मध्य लीला १९.१७०)  इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों के स्वामी की सेवा करना ही भक्ति है  अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा “काम” है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा "प्रेम" है।  (चै.च.आदि लीला ४.१६५)

भक्त प्रह्लाद भगवान् नृसिंह की प्रार्थना करते हुए भक्ति की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहते हैं:  "भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौन्दर्य, तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कान्ति, शारीरिक शक्ति, बुद्धि तथा योगशक्ति क्यों न हों, किन्तु इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति भगवान को प्रसन्न नही कर सकता।  केवल भक्ति से वह ऐसा कर सकता है (श्रीमद् भागवतम ७.९.९)( न तो भौतिक प्रकृति के तीन गुण, न इन तीन गुणों के नियामक अधिष्ठाता देव, न पांच स्थूल तत्व, न देवता, न मनुष्य ही आपको समझ सकते हैं क्योंकि ये सभी जन्म- मृत्यु के वशीभूत रहते हैं ऐसा विचार करके बुद्धिमान व्यक्ति वैदिक अध्ययन की परवाह नही करते, अपितु वे आपकी भक्ति में अपने आप को लगाते हैं। 
श्रीमद् भागवतम (४.२२.२२ – २३) ( में सनत्कुमार राजा पृथू को समझाते हुए कहते हैं: "भक्ति करने,भगवान के प्रति जिज्ञासा करने, जीवन में श्रद्धा पूर्वक भक्तियोग का पालन करने, भगवान की पूजा करने तथा भगवान की महिमा का श्रवण व कीर्तन करने से परमेश्वर के प्रति आसक्ति बढ़ाई जा सकती है। मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार ढालना चाहिए कि उसे भगवान हरि की महिमा का अमृत पान किये बिना चैन न मिले" तथा शुकदेव जी महाराज , शौनकादि ऋषियों से कहते हैं की  "भगवान कृष्ण के चरण-कमलों की स्मृति प्रत्येक अशुभ वस्तु को नष्ट करती है और परम सौभाग्य प्रदान  करती है। यह हृदय को परिशुद्ध करती है तथा भक्ति के साथ साथ त्याग से युक्त ज्ञान प्रदान करती है" (श्रीमद् भागवतम १२.१२.५५)
श्रीमद् भागवतम (६.९.४८)* में भगवान कहते हैं: "यह सत्य है कि मेरे प्रसन्न हो जाने पर किसी के लिए कुछ भी प्राप्त कर लेना कठिन नही है, तो भी शुद्ध भक्त जिसका मन अनन्य भाव से मुझ पर स्थिर है, वह मेरी भक्ति में निरत रहने के अवसर के अतिरिक्त मुझ से और कुछ नही मांगता"।  भक्ति इतनी प्रबल है कि जब कोई इसमें लग जाता है, तो वह क्रमशः समस्त भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर देता है और पूरी तरह से कृष्ण के चरण-कमलों के प्रति अनुरुक्त हो जाता है। यह सब भगवान के दिव्य गुणों के प्रति आकर्षण से ही सम्भव हो पाता है। (चै.च.मध्य लीला २४.१९८)  भगवान वासुदेव में अविचल भक्ति रखने वाले व्यक्ति के चरित्र में समस्त सद्गुण स्वतः आ जाते हैं। (श्रीमद् भागवतम ५.१८.१२) यदि किसी में कृष्ण के प्रति अविचल भक्तिमयी श्रद्धा है, तो उसमें सारे देवताओं के सद्गुण धीरे-धीरे प्रकट हो जाते हैं। (चै.च.आदि लीला ८.५८) 
श्री सूत जी महाराज ने जन साधारण के परम कल्याण के विषय पर ऋषियों के पूंछने पर बताया कि "सम्पूर्ण मानवता के लिए परमवृति (धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य भगवान की प्रेम-भक्ति प्राप्त कर सके  ऐसी भक्ति अकारण तथा अखंड होनी चाहिये जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके और भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।"  
(श्रीमद् भागवतम १.२.६-७)  श्रीमद् भागवतम (४.२४.५९) में शिवजी कहते हैं:"जिसका ह्रदय भक्तियोग से पूर्ण रूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी की कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सद्रश्य माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता। " 
श्रीमद् भागवतम (१२.३.४५-४६) में शुकदेव  महाराज ने कलियुग के लक्षण बताने के बाद महाराज परीक्षित को बताया हैं कि "कलियुग में वस्तुएँ, स्थान तथा व्यक्ति भी सभी प्रदूषित हो जाते हैं  किन्तु यदि कोई व्यक्ति हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर के विषय में सुनता है, उनकी महिमा का गान करता है, उनका ध्यान करता है उनकी पूजा करता है तो भगवान उस व्यक्ति के मन से हजारों जन्मों से संचित कल्मष को दूर कर देते हैं" तथा श्रीमद् भागवतम के स्कन्द १०  को शुकदेव जी महाराज इस श्लोक से समाप्त करते हैं: नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान का दैवीधाम प्राप्त होगा जहाँ मृत्यु की दुस्तर शक्ति का शासन नहीं है। (श्रीमद् भागवतम १०.९०.५०)
अतः हम ये कह सकते है की भगवान् अपने भक्तो के वश में होते है और उनको केवल भक्तो का निष्कपट प्रेम ही चाहिए। भक्ति कैसी करनी चाहिए इसका प्रमाण श्रीमद भागवत और पुराणों में बताया गया है और सहज रूप में हम सब भक्त प्रह्लाद और भक्त ध्रुव की कथाओ को समझ सकते है। 

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