Bhagavad Gita: शब्दावतार है गीता
शब्दों में भगवान के अवतार के रूप में गीता की अवधारणा को समझना
गीता एक पवित्र ग्रंथ है जिसे शब्दों के रूप में भगवान का अवतार माना जाता है। इस व्यावहारिक मार्गदर्शिका के साथ इस गहन अवधारणा की गहराई में उतरें।
गीता, जिसे भगवद गीता के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू दर्शन और आध्यात्मिकता में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसे शब्दों के रूप में ईश्वर का अवतार माना जाता है, जो मानवता को गहन शिक्षा और मार्गदर्शन प्रदान करता है। इस गाइड में, हम दिव्य ज्ञान के अवतार के रूप में गीता की अवधारणा और भगवान की प्रकृति को समझने में इसके महत्व का पता लगाएंगे।
गीता की उत्पत्ति और महत्व
माना जाता है कि गीता, जिसे अक्सर "भगवान का गीत" कहा जाता है, की उत्पत्ति हजारों साल पहले कुरुक्षेत्र के महाकाव्य युद्ध के दौरान हुई थी। यह भगवान के अवतार भगवान कृष्ण और एक योद्धा राजकुमार अर्जुन के बीच की बातचीत है। गीता अर्जुन के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है, जिसे युद्ध के मैदान में नैतिक दुविधाओं और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों का सामना करना पड़ता है।
गीता का महत्व उसकी शिक्षाओं और उसके द्वारा प्रदान किये जाने वाले गहन ज्ञान में निहित है। यह जीवन, कर्तव्य, धार्मिकता और स्वयं की प्रकृति के बारे में बुनियादी सवालों को संबोधित करता है। अपने छंदों के माध्यम से, गीता भगवान की प्रकृति, मानव अस्तित्व के उद्देश्य और आध्यात्मिक ज्ञान के मार्ग में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
दुनिया भर में लाखों लोग गीता को एक पवित्र ग्रंथ के रूप में पूजते हैं जो जीवन की चुनौतियों से निपटने के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह निस्वार्थता, भक्ति और ज्ञान की खोज का महत्व सिखाता है। गीता की उत्पत्ति और महत्व को समझकर, व्यक्ति आत्म-बोध और परमात्मा के साथ गहरे संबंध की दिशा में एक परिवर्तनकारी यात्रा शुरू कर सकता है।
गीता का दिव्य संदेश
गीता केवल शब्दों का संग्रह नहीं है, बल्कि एक दिव्य संदेश है जो आध्यात्मिक ज्ञान चाहने वालों के लिए बहुत महत्व रखता है। यह नैतिक दुविधाओं और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों का सामना करने वाले व्यक्तियों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है, जो ईश्वर की प्रकृति और मानव अस्तित्व के उद्देश्य में गहन ज्ञान और अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
अपनी शिक्षाओं के माध्यम से, गीता निःस्वार्थता, भक्ति और ज्ञान की खोज के महत्व पर जोर देती है। यह व्यक्तियों को भौतिक संसार की क्षणिक प्रकृति को पहचानने के साथ-साथ समर्पण और धार्मिकता के साथ अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
गीता सिखाती है कि सच्ची संतुष्टि और मुक्ति स्वयं के वास्तविक स्वरूप को समझकर और परमात्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित करके प्राप्त की जा सकती है। यह व्यक्तियों को आत्म-प्राप्ति की दिशा में एक परिवर्तनकारी यात्रा शुरू करने के लिए आमंत्रित करता है, जहां वे भौतिक दुनिया की सीमाओं को पार कर सकते हैं और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
गीता की गहराई में जाकर और इसकी शिक्षाओं को अपनाकर, व्यक्ति स्वयं की, जीवन में अपने उद्देश्य और परमात्मा के साथ अपने संबंध की गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं। गीता एक शाश्वत मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है जो आध्यात्मिक विकास और परमात्मा के साथ गहरा संबंध चाहने वालों को सांत्वना, प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करती है।
भगवान के अवतार के रूप में कृष्ण की भूमिका
हिंदू परंपरा में, कृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में सम्मानित किया जाता है, और गीता में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। दैवीय शिक्षक के रूप में, कृष्ण योद्धा राजकुमार अर्जुन को गहन ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, जो युद्ध के मैदान में नैतिक दुविधा का सामना कर रहा है।
गीता में कृष्ण की शिक्षा परिणामों के प्रति लगाव के बिना अपने कर्तव्यों को पूरा करने के महत्व पर जोर देती है। वह निस्वार्थता की अवधारणा पर जोर देते हैं और व्यक्तियों को व्यक्तिगत इच्छाओं या अहंकार से प्रभावित हुए बिना अपने धर्म, या धार्मिक कर्तव्य के अनुसार कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
गीता में भगवान के अवतार के रूप में कृष्ण की भूमिका उस दिव्य उपस्थिति और मार्गदर्शन का प्रतीक है जो सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध है। अपनी शिक्षाओं के माध्यम से, कृष्ण आध्यात्मिक ज्ञान और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति की दिशा में एक मार्ग प्रदान करते हैं।
गीता में भगवान के अवतार के रूप में कृष्ण की भूमिका को समझकर, व्यक्ति इस पवित्र पाठ में दिए गए गहन ज्ञान और मार्गदर्शन के लिए गहरी सराहना प्राप्त कर सकते हैं। यह भीतर दिव्य उपस्थिति और आध्यात्मिक विकास और परिवर्तन की क्षमता की याद दिलाता है।
गीता की प्रमुख शिक्षाएँ और सीख
गीता प्रमुख शिक्षाओं और पाठों से भरी हुई है जो आध्यात्मिक विकास और ज्ञानोदय चाहने वाले व्यक्तियों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती है। केंद्रीय शिक्षाओं में से एक निस्वार्थता की अवधारणा और परिणामों के प्रति लगाव के बिना अपने कर्तव्यों को पूरा करने का महत्व है। कृष्ण इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्तियों को व्यक्तिगत इच्छाओं या अहंकार से प्रभावित हुए बिना, अपने धर्म या धार्मिक कर्तव्य के अनुसार कार्य करना चाहिए।
गीता का एक और महत्वपूर्ण सबक उच्च शक्ति के प्रति समर्पण का विचार है। कृष्ण व्यक्तियों को अपने कार्यों और परिणामों को परमात्मा को समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, यह पहचानते हुए कि वे अंतिम कर्ता नहीं हैं, बल्कि एक बड़ी ब्रह्मांडीय योजना के साधन हैं।
गीता चुनौतियों और विपरीत परिस्थितियों में समभाव बनाए रखने का महत्व भी सिखाती है। कृष्ण अर्जुन को परिस्थितियों की परवाह किए बिना स्थिर और शांत रहने और संतुलित और अलग मानसिकता के साथ जीवन जीने की सलाह देते हैं।
इसके अलावा, गीता एकता और अंतर्संबंध की अवधारणा पर जोर देती है। कृष्ण सिखाते हैं कि सभी प्राणी एक ही दिव्य चेतना का हिस्सा हैं और इस अंतर्निहित एकता को पहचानने के माध्यम से सच्ची पूर्ति और मुक्ति पाई जा सकती है।
कुल मिलाकर, गीता गहन शिक्षाएँ और पाठ प्रदान करती है जो व्यक्तियों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा में मार्गदर्शन कर सकती है। इन शिक्षाओं को समझने और लागू करने से, व्यक्ति उद्देश्य, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक विकास की गहरी भावना पैदा कर सकते हैं।
गीता के ज्ञान को दैनिक जीवन में अपनाना
गीता का ज्ञान किसी पवित्र ग्रंथ के पन्नों तक सीमित नहीं है। इसका उद्देश्य हमारे दैनिक जीवन में लागू होना, हमारे विचारों, कार्यों और दूसरों के साथ बातचीत का मार्गदर्शन करना है। गीता की शिक्षाओं को लागू करने का एक तरीका निस्वार्थता का अभ्यास करना और परिणामों की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों को पूरा करना है। इसका मतलब है कि हम जो भी भूमिकाएँ निभाते हैं - एक माता-पिता, एक दोस्त, एक कर्मचारी के रूप में - मान्यता या पुरस्कार की अपेक्षा किए बिना अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करें।
गीता के ज्ञान को लागू करने का दूसरा तरीका उच्च शक्ति के प्रति समर्पण करना है। इसका मतलब हमारी स्वायत्तता या जिम्मेदारी को छोड़ना नहीं है, बल्कि यह पहचानना है कि काम पर एक बड़ी योजना है और दिव्य मार्गदर्शन पर भरोसा करना है। अपने कार्यों और परिणामों को परमात्मा को समर्पित करके, हम हर चीज को नियंत्रित करने की आवश्यकता से छुटकारा पा सकते हैं और यह जानकर शांति पा सकते हैं कि हम एक बड़े ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा हैं।
चुनौतियों के सामने समभाव बनाए रखना गीता के ज्ञान को लागू करने का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है, लेकिन एक संतुलित और अलग मानसिकता विकसित करके, हम अनुग्रह और संयम के साथ कठिनाइयों से निपट सकते हैं। इसका मतलब हमारी भावनाओं को दबाना या हमारे अनुभवों को नकारना नहीं है, बल्कि स्वीकृति और लचीलेपन की भावना के साथ उनका सामना करना है।
अंत में, गीता के ज्ञान को लागू करने का अर्थ है सभी प्राणियों के अंतर्संबंध को पहचानना। दूसरों में परमात्मा को देखकर और उनके साथ प्रेम, करुणा और सम्मान का व्यवहार करके, हम अपने रिश्तों और समुदायों में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दे सकते हैं। इसमें क्षमा, सहानुभूति और दूसरों के प्रति समझ का अभ्यास शामिल है, क्योंकि हम सभी एक ही दिव्य चेतना का हिस्सा हैं।
इन शिक्षाओं को अपने दैनिक जीवन में शामिल करना हमेशा आसान नहीं हो सकता है, लेकिन अभ्यास और समर्पण के साथ, हम उद्देश्य, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक विकास की गहरी भावना पैदा कर सकते हैं। गीता कालातीत ज्ञान प्रदान करती है जो हमें आत्म-साक्षात्कार और आत्मज्ञान की ओर हमारी यात्रा में मार्गदर्शन कर सकती है।
श्रीमदभगवदगीता पढ़ने का सही तरीका
इसके प्रत्येक पाठक को उचित है कि वह अपनी ऐसी धारणा बनाये कि:-
"मैं अर्जुन हूँ और मुझ में पाप, अपराध, अकर्मण्यता, कर्तव्यहीनता, कायरता और दुर्बलता आदि जो भी दुर्गुण हैं उन को जीतने के लिए श्री कृष्ण भगवान् मुझे ही उपदेश दे रहे हैं।
भगवान मेरे ही आत्म की अमर सत्ता को जगा रहे हैं, मेरे ही चैतन्य स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं और आलस्य-रहित हो कर, समबुद्धि से स्वकर्तव्य कर्म करने को मुझे ही प्रेरित, उतेजित तथा उत्साहित करने में तत्पर हैं।
श्री भगवान् का मैं ही प्रिय शिष्य हूँ, परमप्रिय भक्त हूँ, श्रद्धालु श्रोता हूँ।"
ऐसे उत्तम विचारों से गीता का पाठक भगवान् कि कृपा का पात्र बन जाता है और उसमें गीता का सार सहज से समाने लग जाता है।
गीता मर्म का विषय
भगवान् ने श्रीमुख से स्वयं कहा है कि "गीता का पाठ करना और उसको सुनना-सुनाना ज्ञान-यज्ञ है, उस से मैं पूजा जाता हूँ।"पाठक को चाहिए के वह एक विश्वासी और श्रद्धावान यजमान बनकर बड़े गम्भीर भाव से इस यज्ञ को किया करे और इसको परमेश्वर का पुन्यरूप परम पूजन ही समझे।
इस भावना से गीता का ज्ञान, पाठक के ह्रदय में, आप ही आप प्रकाशित होने लग जाया करता है।
श्रीमदभगवदगीता, हिन्दुओं के ज्ञाननिधि में एक महामुल्य चिंतामणि रत्न है, साहित्य-सागर में अमृत-कुम्भ है और विचारों के उधान में कल्पतरु है।
सत्य पथ के प्रदर्शित करने के लिए, संसार भर में गीता एक अदवितीय और अद्भुत ज्योति-स्तम्भ है।
श्रीमदभगवदगीता में सांख्य, पातान्जल और वेदांत का समन्वय है
इसमें ज्ञान, कर्म और भक्ति कि अपूर्व एकता है, आशावाद का निराला निरूपण है, कर्तव्य कर्म का उच्चतर प्रोत्साहन है और भक्ति-भाव का सर्वोत्तम प्रकार से वर्णन है।- श्रीमदभगवदगीता तो आत्म-ज्ञान की गंगा है, इसमें पाप, दोष कि धूल को धो डालने के परम पावन उपाय बताये गए हैं।
- कर्म-धर्म का, बन्ध-मोक्ष का इसमें बड़ा उत्तम निर्णय किया गया है।
- गीता, भगवान् के सारमय, रसीले गीत हैं जिन में उपनिषदों के भावों सहित, भक्ति-भाव भरपूर समाया हुवा है और वेद का मर्म भी आ गया है।
- श्रीमदभगवदगीता में नारायणी गीता का भी पूरा प्रतिबिम्ब विधमान हैं। इसका अपना मौलिकपन भी महामधुर और मनो-मोहक है।संक्षेप से कहा जाय तो यह सत्य है कि भगवान् श्री कृष्ण ने ज्ञान के सागर को गीता-गागर में पूर्ण-रूप में भर दिया है।
- श्रीमदभगवदगीता में कर्मयोग की बड़ी महिमा है, कर्मों के फलों में आशा न लगाकर कर्तव्य-बुद्धि से कर्म करना कर्मयोग है। कर्तव्यों को करते हुए मोह में, ममता में तथा लालसा आदि में मग्न न हो जाना अनासक्ति है। अपने सारे कर्मों को, अपने ज्ञान-विज्ञान, तर्क-वितर्क और मतासहित, मन, वचन, काया से श्री भगवान् की शरण में समर्पण कर देना, कर्तापन का अभिमान न करना और अपने आप सहित कर्ममात्र को विधाता की भक्ति की वेदी पर बलि बना देना भक्तिमय कर्मयोग है; यही सच्चा संन्यास है।
मानव जीवन की उन्नति
गीता के उपदेशामृत को भावना-सहित पान कर लेने से भगवदभक्त को परमेश्वर का परम धाम आप ही आप सुगमता से प्राप्त हो जाता है।
श्रीमदभगवदगीता का यह माहात्म्य महत्वपूर्ण है कि इस को जीवन में बसाने से और कर्मो मे ले आने से मनुष्य का व्यक्ति-गत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन उन्नत होकर उसका यह लोक सुधर जाता है और साथ ही आत्मा परमात्मा का शुद्ध बोध हो जाने से उसकी जन्म-बन्ध से मुक्ति भी हो जाती है।
श्रीमदभगवदगीता का यह माहात्म्य महत्वपूर्ण है कि इस को जीवन में बसाने से और कर्मो मे ले आने से मनुष्य का व्यक्ति-गत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन उन्नत होकर उसका यह लोक सुधर जाता है और साथ ही आत्मा परमात्मा का शुद्ध बोध हो जाने से उसकी जन्म-बन्ध से मुक्ति भी हो जाती है।
गीता का प्राकट्य कैसे हुवा?
कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अट्ठारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा। हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है।
महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया।
भगवान का विराट स्वरूप, ज्ञान, शक्ति हमे ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईहोने और उनकी विराट सत्ता की महिमा ही बताता है।
नर-नारायण
माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता हैकिंतु गीता में लिखी एक बात साफ करती है की साधारण इंसान भी भगवान के विराट स्वरूप के दर्शन कर सभी पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो सकता है।
गीता कैसे आपके दर्शन कराती है
श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि "आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है?"
तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हुए कहते हैः-
"पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।"
इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़, समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है।
इस संबंध में लिखा भी गया है कि बुद्धिमान इंसान हर रोज अगर गीता के अध्याय या श्लोक के एक, आधा या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।
तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हुए कहते हैः-
"पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।"
इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़, समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है।
इस संबंध में लिखा भी गया है कि बुद्धिमान इंसान हर रोज अगर गीता के अध्याय या श्लोक के एक, आधा या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।
भगवद्गीता की विद्या
भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्मा विद्या।
"भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।"
- माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है।
- साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है।
- ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है।
- ब्रह्मा विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है।
"भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।"
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